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प्रेम का दूजा नाम समर्पण! (कांटेस्ट)

मन-दर्पण
मन-दर्पण
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सागर मिलन की आस लिये

अधरों पर एक प्यास लिये

जग की प्यास बुझाती

जीवन का राग सुनाती

कल-कल कर  जो बहती रहती है

नदियाँ वो बोलो क्या कभी अपना जल पीती हैं

खग-विहग को आवास दिए

जीवन धारा को श्वास दिए

तपती धूप में जलते खुद

छाया पथिक को जो दे जाते हैं

वृक्ष वो बोलो क्या कभी अपना फल खाते हैं

विरह-वेदना धरती की जब अम्बर तक जाती है

बनकर बूंदे सदायें अम्बर की

धरती के जख्मो पर मरहम रख जाती हैं

कभी किसी क्षितिज पर मिल जाने का मन में विश्वास लिये

सदियों से यूँ ही दोनों संग-संग चलते जाते है

धरती-अम्बर वो बोलो क्या कभी एक दूजे को  मिल पाते हैं

प्रेम हृदय की एक निश्छल-निस्वार्थ भावना है

इसमें क्या खोना क्या पाना है

कहता  हमसे प्रकृति का कण-कण है

प्रेम आस्था-विश्वास का वो संगम है

जिसका दूजा नाम समर्पण है

०२-२०१४)


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