- 19 Posts
- 129 Comments
हूँ नहीं मै मगरूर
गर हूँ मै तुझसे दूर,
तो कहीं खुद से ही हूँ मजबूर!
और कोई बात नहीं!
हाड़ मांस का ये पुतला,
उपर से सख्त जो इतना दिखता है,
भीतर है इसके एक नाज़ुक सा दिल भी,
जो तेरे नाम से ही धड़कता है,
ऐसा नहीं कि इसमें कोई ज़ज्बात नहीं,
हूँ कहीं खुद से ही मजबूर!
और कोई बात नहीं|
वो बाते, मुलाकाते
वो ख्वाबों ख्यालों की सौगाते
वो तेरी खुशबू में महकी शामे
वो तेरी चाहत की चांदनी से रोशन रातें
भूली नहीं सब है याद मुझे
वक्त की गर्दिश में गुम हुए है
जो सब ये लम्हात कही
हूँ कही खुद से ही मजबूर!
और कोई बात नहीं|
हमदम मेरे !
माना अपनी उम्मीदों के सूरज पर,
अब स्याह रात का साया है|
पर अँधेरा हो कितना ही घना
सूरज की एक किरण के आगे
कब टिक पाया है!
जिसकी सहर ना हो,
ऐसी तो कोई रात नहीं,
हूँ कही खुद से ही मजबूर!
और कोई बात नहीं|
शिल्पा भारतीय “अभिव्यक्ति”अंतर्मन की (१२-०६-२०१३)
Read Comments