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माटी का है पुतला एक दिन माटी में मिल जाना है!

मन-दर्पण
मन-दर्पण
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क्या तेरा क्या मेरा है
ये जग तो रैन बसेरा है
रे मूरख! क्या खोजता भटक रहा
मन में लिये घना अँधेरा है
ये धन-दौलत ये कंचन-काया
जिसके पीछे है तू भरमाया
सब यहीं का यहीं रह जायेगा
कौन यहाँ से कुछ ले जा पाया
जो तू लेकर  जायेगा
तोड़ मोह-माया के सब बंधन
प्राण का पंछी इक दिन उड़ जायेगा

तज लोभ-इर्ष्या -द्वेष पाप-वासना
कर निज इन्द्रिय-समूह से आचरण ऐसा प्रतिपल
रहता है सदा निर्मल जैसे कीचड़  बीच कमल
लाख योनियों में मिला जो मानव जीवन है
उस परमपिता का तुझपर करम है
तज निज-स्वार्थ कर ऐसे सद्कर्म
दे दूजो को अपनी मुस्कान बाँट उनका दुःख-दर्द
कि!मानव धर्म  से बढ़कर  ना दूजा कोई धर्म है
बाद तेरे–धर्म कर्म ही तेरा शेष यहाँ रह जाएगा
तेरा क्या है तू तो है माटी का पुतला
एक दिन माटी में मिल जायेगा

शिल्पा भारतीय “अभिव्यक्ति” अंतर्मन की

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