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माँ तो बस माँ जैसी होती है!

मन-दर्पण
मन-दर्पण
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कोई कहे खुदा उसे
किसी के लिये खुदा जैसी होती है
स्वयं खुदा देता जिसको दर्ज़ा अपना
इस जहाँ में बस एक माँ ही ऐसी होती है

देकर बूँद-बूँद लहू की अपने
हमे जो जिस्म-ओ-जाँ  देती है
पर जीवन पर्यंत इसका वो कोई मोल कहाँ लेती है
माँ तो बहती एक निश्चल नदी सी होती है

होती है जब-तक उसके आँचल जितनी

दुनिया अपनी इतनी हंसी होती है

आँचल में उसके सिमटे होते है  चाँद सितारे
और गोद उसकी फूलों की सरजमी सी होती है
माँ के आँचल सी जन्नत दूजी कहाँ होती है

हर शरारत पर हमारी हौले से मुस्कुरा जो देती है
गलती पर गलती से जो दे डांट कभी
संग हमारे फिर खुद भी रो देती है
लेकर अपने दामन में हर गुनाह हमारे जो धो देती है
माँ वो पावन गंगाजल जैसी होती है

हंसकर हर दर्द अपना जो सह लेती है
गर हो कोई तकलीफ हमे
सुख-चैन सब अपना खो देती है
रह खुद अंधेरो में करती रोशन जहां हमारा
वो जलते चिरागों सी होती है
है बंधे जिनसे रिश्तों के ये नाजुक से बंधन
माँ उन उल्फ़त के धागों सी होती है

नाउम्मीदी की  स्याह रातों में
उम्मीदों की एक सहर सी होती है
ख्वाहिशों के तपते सहराओं में
दुआओं की एक नहर सी होती है
आने देती ना कोई आंच कभी जो हमपर
सहती खुद जमाने की तेज धूप-बारिशें
माँ एक घने सजर सी होती है

फेर दे जो सर पर हाथ प्यार से

बला हर टल जाती है
उठती गर्म हवाएं भी आती उसके आँचल से
शबनम की बूंदों में ढल जाती हैं
सीखती सबक जिंदगी के उसके साये तले
टूटी-फूटी सी हस्ती भी अपनी
एक खूबसूरत महल बन जाती है
है उसकी रहमतों पर टिका वजूद हमारा
माँ इस जीवन धुरी सी होती है

माँ से मीठा कोई बोल नहीं
माँ की ममता का कोई मोल नहीं
कर सके जो उसे बयाँ
बनी  ऐसी कोई परिभाषा कहाँ
वो तो है खुद में एक मुकम्मल जहां
जिसमे पूरी कायनात बसी होती है
इस में जहाँ नहीं कोई दूजी उपमा उसकी
माँ तो बस माँ जैसी होती है
माँ तो बस माँ जैसी होती है!

शिल्पा भारतीय “अभिव्यक्ति”

(दिनाँक -०८/०५/१४)

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